प्राकृतिक असंतुलन और हम

कृष्ण गोपाल वैष्णव, जोधपुर।

 

वनों के महत्व को समझते हुए वर्ष 1971 में यूरोपीय कृषि संगठन की 23वीं साधारण बैठक में प्रतिवर्ष विश्व वानिकी दिवस के रूप में घोषित करने का निर्णय लिया गया। वानिकी के तीन महत्वपूर्ण तत्वों – सुरक्षा, उत्पादन एवं वन विहार के विषय में जन सामान्य को जानकारियां देने के लिए उसी वर्ष 21 मार्च को विश्व वानिकी दिवस के रूप में चुना गया। वर्ष 2022 के विश्व वानिकी दिवस की थीम है “वन एवं सतत उत्पादन और उपभोग” (FOREST AND SUSTAINEBLE PRODUCTION AND CONSUMPTION).
जंगल एक ऐसा समुदाय है जहाँ सम्पूर्ण जैव विविधता के दर्शन होते है। प्रकृति सर्वशक्तिमान है। प्रकृति द्वारा बनाया गया जैविक चक्र व्यवस्थित रूप से एक दुसरे का पूरक है इस चक्र में से किसी भी तत्व का विलोपन हो जाये तो अन्य तत्वों के अस्तित्व पर भी उतना ही संकट आएगा। पिछले 8000 वर्षों में पृथ्वी के मूल वनक्षेत्र का 45 प्रतिशत भाग समाप्त हो चूका है। इस 45 प्रतिशत का अधिकांश भाग पिछली शताब्दी में ही समाप्त हुआ है। घटते वनों ने जलवायु परिवर्तन, वैश्विक ताप, पिघलते ग्लेशियर, लुप्त होती वन्य प्रजातियाँ जैसी विकट समस्याएं उत्पन्न की है।
पेड़ बचेंगे तो हम बचेंगे इसलिए वन एवं प्रकृति बचाने के सामूहिक सामूहिक प्रयास होने चाहिए।
नारीशक्ति की भूमिका – वनों के प्रति महिलाओं का बहुत ही भावनात्मक लगाव होता है। इसका सर्वप्रथम उदाहरण जोधपुर की अमृतादेवी का बलिदान है। जब तक नारीशक्ति को वनों का महत्व बताकर उनका सहयोग न लिया जाये वन संरक्षण एवं सुरक्षा संभव नहीं है। वन्य क्षेत्रीं के आस-पास रहने वाली महिलाओं को जागरूक करना होगा कि यदि वन सुरक्षित रहेंगे तो हम अपने दैनिक आवश्यकताओं के लिए वन उत्पाद जैसे ईंधन, फल, शहद, गोंद, रबड़ आदि प्राप्त होंगे।
समुदाय की भूमिका- वनों के संरक्षण के लिए समाज को जागरूक करना होगा विशेषकर आदिवासी समुदायों को। आदिवासी समुदाय प्रकृति प्रेमी होते है तथा वन एवं वन्य जीवन का गहन ज्ञान रखते है इन वन प्रहरियों को वन संरक्षण एवं वन सुरक्षा कार्यक्रमों में सम्मिलित किया जाना चाहिए। उनके पारम्परिक ज्ञान को आधुनिक तकनीकों के सहयोग से उपयोग में लेकर वन सुरक्षा के क्षेत्र में वांछित सफलता प्राप्त कर सकते है।
विद्यार्थियों की भूमिका – विद्यार्थी वह कड़ी है जो किसी भी समस्या को वृहद् स्तर पर न केवल प्रचारित-प्रसारित करती है अपितु उद्देश्यों की सफलता भी निश्चित करती है। विद्यार्थियों के माध्यम से यह विषय सरलता से सभी तक पहुँचाया जा सकता है।
विधिक सहयोग- वन संरक्षण सम्बंधित विधिक नियमावली तो बनी हुयी है, आवश्यकता है उसे कठोरता से पालन करने की ताकि वनों का अवैध क्षरण रोका जा सके। ये नियम कागजों तक सिमित न रहकर मूर्त रूप ले ले तो वनों के ह्रास को रोका जा सकता है।
संत एवं धर्म गुरु – धर्मगुरुओं एवं संतों का हमारे समाज में विशिष्ट स्थान है। इनके द्वारा कही बातों को समाज अंतर्मन से अंगीकार कर अपने जीवन में उतरता है। समाज के मानस परिवर्तन में संतों का अतुलनीय योगदान है। उनके द्वारा दिया गया प्रकृति संरक्षण का सन्देश समाज के एक बड़े वर्ग तक पहुँच कर क्रांति ला सकता है। तो आइये हम सभी वनों की रक्षा के लिए संकल्पित हो ।
वृक्ष हमें देते है जीवन, कैसे जियेंगे जब न होंगे वन।

 

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