प्रकृति प्रेम की कहानी

कृष्ण गोपाल वैष्णव, जोधपुर।

चिपको आन्दोलन एक पर्यावरण-रक्षा का आन्दोलन था। यह भारत के उत्तराखण्ड राज्य (तब उत्तर प्रदेश का भाग) में किसानो ने वृक्षों की कटाई का विरोध करने के लिए किया था। इसमें लोगों ने पेड़ों केा गले लगा लिया ताकि उन्हें कोई काट न सके। वास्तव में यह आलिंगन प्रकृति और मानव के बीच प्रेम का प्रतीक बना और इसे “चिपको” की संज्ञा दी गई।

  1. चिपको आंदोलन के पीछे एक पारिस्थितिक और आर्थिक पृष्ठभूमि है। यहाँ का साधारण जन 1970 में आई भयंकर बाढ़ का अनुभव कर चुका था। इस बाढ़ से 400 कि०मी० दूर तक का क्षेत्र, पांच बड़े पुल, हजारों मवेशी, लाखों रूपये की लकडी व ईंधन बहकर नष्ट हो गए। बाढ़ के पानी के साथ बही गाद इतनी अधिक थी कि उसने 350 कि०मी० लम्बी ऊपरी गंगा नहर के 10 कि०मी० तक के क्षेत्र में अवरोध पैदा कर दिया जिससे 8.5 लाख एकड़ भूमि सिंचाई से वंचित हो गर्ई थी और 48 मेगावाट बिजली का उत्पादन ठप हो गया था। अलकनंदा की इस त्रासदी ने ग्रामवासियों के मन पर एक अमिट छाप छोड़ी और उन्हें लोगों के जीवन में वनों की महत्वपूर्ण भूमिका का महत्व ज्ञात हुआ।
    वन विभाग ने खेल-कूद का सामान बनाने वाली प्रयागराज की साइमंड कम्पनी का गोपेश्वर से एक किलोमीटर दूर मण्डल नाम के वन से अंगू के पेड़ काटने की अनुमति दे दी है। पहले ये पेड़ नजदीक रहने वाले ग्रामीणों को मिला करते थे। गांव वाले इस हल्की लेकिन बेहद मजबूत लकडी से खेती- बाड़ी के औजार बनाते थे। पहाडी खेती में बैल का जुआ सिर्फ इसी लकड़ी से बनाया जाता रहा है, इसके हल्केपन के कारण बैल थकता नहीं। वनों के ठीक पास में बसे गांव वाले जिन पेडों को छू तक नहीं सकते थे, अब उन पेडों को दूर प्रयागराज की एक कम्पनी को काटकर ले जाने की अनुमति दे दी गई। इसकी सूचना मिलते ही चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में 14 फरवरी, 1974 को एक सभा की गई जिसमें लोगों को चेताया गया कि यदि पेड़ गिराये गये, तो हमारा अस्तित्व संकट में पड़ जायेगा। इस सभा के पश्चात् 15 मार्च को गांव वालों तथा 24 मार्च को विद्यार्थियों ने रेणी जंगल की कटाई के विरोध में रैली निकाली। सरकार ने आंदोलनकारियों को बातचीत के लिए जिला मुख्यालय, गोपेश्वर बुला लिया। इस अवसर का लाभ उठाते हुए ठेकेदार और वन अधिकारी जंगल में घुस गये। 26 मार्च, 1974 को जब ठेकेदार रेणी गांव में पेड़ काटने आये, उस समय पुरुष घरों पर नहीं थे। गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं ने कुल्हाड़ी लेकर आये ठेकेदारों को यह कह कर जंगल से भगा दिया कि यह जंगल हमारा मायका है। हम इसे कटने नहीं देंगी। अर्थ-व्यवस्था के इस मंत्र का घोष किया–
    “क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
    मिट्टी , पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार।”
    धीरे-धीरे चिपको आंदोलन परम्परागत अल्पजीवी विनाशकारी अर्थव्यवस्था के विरूद्ध स्थायी अर्थव्यवस्था-इकॉलाजी का एक सशक्त जनआंदोलन बन गया। अब आंदोलन की मुख्य मांग थी- हरे पेड़ों की कटाई 10 से 25 वर्ष तक स्थगित रखी जानी चाहिए जब तक राष्ट्रीय वन नीति के घोषित उददेश्यों के अनुसार हिमालय में कम से कम 60 प्रतिशत क्षेत्र पेड़ों से ढक न जाए। मृदा और जल संरक्षण करने वाले इस प्रकार के पेड़ों का युद्ध स्तर पर रोपण किया जाना चाहिए जिनसे लोग भोजन-वस्त्र आदि की अनिवार्य आवश्यकतों में स्वावलम्बी हो सकें।
    इन जागृत पर्वतवासियों के गहरे दर्द ने पदयात्रियों, वैज्ञानिकों और राजनीतिज्ञों के पर प्रभाव डाला। 9 मई, 1974 को उत्तर प्रदेश सरकार ने चिपको आंदोलन की मांगों पर विचार के लिए एक उच्चस्तरीय समिति के गठन की घोषणा की। दिल्ली विश्वविद्यालय के वनस्पति-विज्ञानी श्री वीरेन्द्र कुमार इसके अध्यक्ष थे। गहरी छानबीन के बाद समिति ने पाया कि गांव वालों ओर चिपको आंदोलनकारियों की मांगे सही हैं। अक्टूबर, 1976 में उसने यह सिफारिश भी कि 1,200 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में व्यावसायिक वन-कटाई पर 10 वर्ष के लिए रोक लगा दी जाए। साथ ही समिति ने यह सुझाव भी दिया कि इस क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण भागों में वनरोपण का कार्य युद्धस्तर पर प्रारम्भ किया जाए। उत्तरप्रदेश सरकार ने इन सुझावों को स्वीकार कर लिया। इस रोक के लागु होने के कारण 13,371 हेक्टेयर की वन कटाई योजना वापस ले ली गई। चिपको आदोलन की यह बहुत बड़ी विजय थी।

    चिपको आंदोलन को प्राय: एक महिला आंदोलन के रूप में जाना जाता है पहाड़ों की उपजाऊ मिट्टी के बहकर चले जाने से रोजगार के लिए पुरुषों के पलायन के फलस्वरूप गृहस्थी का सारा भार महिलाओं पर ही पड़ता है। पशुओं के लिए घास, चारा, रसोई के लिए ईंधन और पानी का प्रबंध करना खेती के अलावा उनका मुख्य कार्य है। इनका वनों से सीधा संबंध है। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि जंगलों की अंधाधुंध कटाई के विरूद्ध आवाज उठाने में महिलाएं बहुत सक्रिय रहीं हैं। इसने यह भी दर्शाया कि किस प्रकार महिलाएं पेड़-पौधे से संबंध रखती हैं और पर्यावरण के विनाश से कैसे मनुष्य जीवन की समस्याएँ बढ़ जाती हैं।

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रमेश नारायण सैनी

धन्य है प्रकृति प्रेमी
कुछ अच्छा करने का मन में हो तो कुछ भी असंभव नहीं है , परंतु उसके लिए त्याग और समर्पण का साहस होना भी आवश्यक है । सामूहिक सहयोग से सभी कार्य अच्छे ही होते है ।
भाई साहब ने चिपको आंदोलन की विस्तृत और प्रकृति प्रेमियों के लिए प्रेरणास्पद जानकारी उपलब्ध करवाई है ।

Manikant joshi
Manikant joshi
11 months ago

हम देख सकते हैं कि जंगलों की अंधाधुंध कटाई के विरूद्ध आवाज उठाने में महिलाएं बहुत सक्रिय रहीं हैं। इसने यह भी दर्शाया कि किस प्रकार महिलाएं पेड़-पौधे से संबंध रखती हैं और पर्यावरण के विनाश से कैसे मनुष्य जीवन की समस्याएँ बढ़ जाती हैं।

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