अंटार्कटिका का एक बहुत बड़ा सा हिस्सा टूटकर अलग हो गया है जिसे आइसबर्ग कहते हैं। इस आइसबर्ग का क्षेत्रफल लगभग 1200 वर्ग किलोमीटर है।
क्षेत्रफल के हिसाब से इसकी तुलना इटली की राजधानी रोम (1285 वर्ग किलोमीटर) या अमेरिका के लॉस एंजलिस शहर (1302 वर्ग किलोमीटर) से की जा सकती है । इस आइसबर्ग का क्षेत्रफल भारत की राजधानी दिल्ली (1484 वर्ग किलोमीटर) से ज्यादा कम नहीं है। फिर भी विश्व के इन महत्वपूर्ण शहरों के बजाय आज अंटार्कटिका के आइसबर्ग की चर्चा करना ज्यादा आवश्यक हो गया है ।
इसका कारण समझने के लिए अंटार्कटिका के महत्व को जानना ज़रूरी है। अंटार्कटिका के पिघलते बर्फ़ मानव जीवन को समाप्त भी कर सकते हैं इसका खतरा बहुत ही गंभीर हैं ।अंटार्कटिका में दुनिया के बाकी ग्लेशियर की तुलना में 50 गुना अधिक बर्फ़ है और अगर यह पिघल जाती है तो पृथ्वी का तापमान लगभग 60 डिग्री तक बढ़ जाएगा । यह तापमान इतना ज्यादा होगा कि मनुष्य इस की गर्मी को बर्दाश्त नहीं कर पाएगा ।
पृथ्वी पर लगभग 2,00,000 ग्लेशियर है जो नदियों के जल का एकमात्र स्रोत है। अगर ग्लेशियर पिघलते हैं तो नदियों के जल का स्रोत समाप्त हो जाएगा । इससे दुनिया में पीने का शुद्ध पानी भी खत्म हो जाएगा और इंसान पीने के पानी के लिए भी संघर्ष करने के लिए मजबूर हो जाएगा और पृथ्वी पर मनुष्य जीवन का अस्तित्व खतरे में आ जाएगा । हमें अपने आप को स्वस्थ रखने के लिए पृथ्वी का स्वस्थ रखना बेहद ही जरूरी है ।
वायुमंडल में मौजूद ग्रीन गैस जैसे मेथेन,कार्बन डाइऑक्साइड, और क्लोरो फ्लोरो कार्बन के बढ़ने के कारण पृथ्वी के औसत तापमान में होने वाली बढ़ोतरी को ही ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं। गैसों का उत्सर्जन मानव अपने हितों के लिए कर रहा है लेकिन इसके दूरगामी परिणाम बहुत ही घातक होंगे । ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर पिघल रहे हैं और वायु मंडल में औसत तापमान में वृद्धि हो रही है । इसके कारण कही न कही समुद्र तल में भी वृद्धि हो रही है और यह वृद्धि समुद्र तटीय शहरों के लिए भविष्य में खतरा पैदा कर सकती है। एक अध्ययन के मुताबिक वर्ष 1980 के बाद से समुद्र के जलस्तर में औसतन नौ इंच की वृद्धि हुई है। पिछले 100 वर्षों में ग्लेशियर के पिघलने की वजह से दुनिया भर के समुद्र तल में 35% तक वृद्धि हुई है और यह सिलसिला अभी भी जारी है ।अब भी समय है हमें ग्रीन हाउस गैसों को बढ़ने से रोकने के लिए उपाय खोजने होंगे ।
